बदलती तारीख के साथ 14 नवंबर भी बदल गया ,लेकिन मेरे बचपन की यादों की चरखी तो खुलती ही जा रही है. जब भी बचपन की बात चलती है , कही 'बचपन' शब्द सुनाई पड़ता है तो दिल दिमाग में बाँसुरी का स्वर गूँज उठता है ,दिमाग के सात सुरों को कम्पन मिल जाता है। हँसता खेलता ,कूदता ,इठलाता ,मौज मस्ती का बचपन , बचपन जैसे फुल मस्ती का डोज़ …
तब हम लोग नैनीताल (अब उत्तराखंड में ) में थे ,हमारे क्वॉर्टर के पीछे बड़ा सा मटर का खेत था , खेत से कुछ दूरी पर एक सूखी नहर थी (पानी नहीं बहता था नहर में) , नहर में बड़ी- बड़ी उची घास थी और उस घास में ढेर सारी चिड़ियों ने अपने घोसलें बना रखे थे। तब पता नहीं था की "बया चिड़ियाँ" का घोंसला ऐसा होता है , चिड़ियाँ कारीगर ने बड़ी सफाई से तिनका बटोर -बटोर कर साफ़ सुथरा(बीच में कुछ फूला हुआ और नीचे क्रमशः पतला था )घोंसला बनाया था। एक और घोंसला था जो एकदम गोल कटोरे जैसा था ,कहीं से भी एक तिनका बाहर नहीं निकला था। मै और मेरा भाई उसमे से एक दो घोसले घर लाये थे मम्मी को दिखाने के लिए। मम्मी ने हम लोगो को घोसलों के साथ देखा तो सिर पीट लिया हम लोगो को उलटे पैर वापस भेजा "जाओ वापस रख कर आओ नहीं तो बहुत पिटाई करूँगी " ।हमने चिड़ियों का आशियाना वापस कर दिया ,वापस लौटते समय हम लोग मटर के खेत में घुस गए। पेट भर मटर के दाने चबाने के बाद लौटते समय अपने -अपने कपड़ो में जितनी मात्रा आ सकती थी भर लिए , मम्मी ने देखा तो बोली "अब ये कहाँ से उठा लाये ?"
हम लोगो के लीडर हुआ करते थे "तीरथ भैया ", हम लोगो को नयी -नयी जगह घूमाते थे, आर्टिजन पर ले जाते थे (आर्टिजन वो जगह थी जहाँ पीने वाला पानी निकलता था ),एक बार खुसबरी(एक रसीला फल जो पत्तों के कवर में बंद रहता है ) के खेत ले गए , खेत के पास पानी वाली नहर बह रही थी ,हम लोग तो पानी में पैर डाल कर बैठ गए लेकिन तीरथ भैया का जो डॉगी था उसने पानी में जम्प मार लिया हम लोग तो डर गए की अब तो डॉगी डूब जायेगा लेकिन अगले ही पल देखा तो डॉगी आराम से तैर रहा था (पहली बार कुत्ते को तैरते हुए देखा था)।
मुज़्ज़फरनगर की दीपावली भी कुछ कम रोचक नहीं थी , एक हफ्ते पहले से ही पठाखों का कलेक्शन , उनकी टेस्टिंग (कहीं सील तो नहीं गए ) शुरू हो जाती थी। मम्मी घर की सफाई में व्यस्त और हम लोग कूड़ा फ़ैलाने में। घर में गाय भी थी ,तो पटाखा बाहर दगता था और गाय घर में कूदती थी। लाख मना करने पर भी ये सब बचपन में कहाँ समझ में आता है ? बड़े भैया के दिए गए सुझाव से मिटटी की चार पहिया गाड़ी बनायीं थी , ड्राइवर की सीट के सामने शीशा होना चाहिए , अब शीशा कहाँ से आएगा ? हम तीनो भाई -बहन पहुँच गए कूड़े के ढेर पर। लौट कर आये तो पापा ने एक आधा घंटे सजा में खड़ा रखा था।
खेलने में मशगूल हम लोग भूल जाते थे की ऑफिस से लौट कर पापा पहाड़े भी सुनेंगे , सजा मिलने पर एक ही सवाल मन में आता था "हमारे माँ - बाप पढ़े लिखे क्यों है ?"
होली में सबको रंगने के बाद या यूँ कहे की दूसरों द्वारा रंगे जाने पर जब हमें कोई नहीं मिलता था तब हम लोग गईया पर अपने रंगो की वर्षा करते थे। वो सींग दिखाती थी तब हम लोग छिटक कर दूर हट जाते थे और दूर जाने पर पिचकारी की धार गईया तक पहुँच न पाती थी।
बरेली की सर्दियों के तो क्या कहने , क्वार्टर के पास कृषि फार्म था ढेर सारा धुंध रहता था ,क्रिश्चियन कॉलेज होने के नाते सर्दियों की अच्छी -खासी छुट्टियां होती थी। सर्दियों में मूंफली पट्टी का स्वाद याद आते ही मुह में पानी आ गया। कृषि फार्म में आलू उगते देखा था , मिटटी के अंदर छोटे- छोटे गोल -गोल , धान भी पहली बार उगते देखा था.।
ये फोटो बरेली के कृषि फार्म की है
हरदोई ने हमे बड़ा कर दिया , लखनऊ आते - आते बचपन काफी पीछे छूट गया। लेकिन बचपन की यादों(शरारतों ,चंचलता,दौड़ना -भागना ) की चरखी शुरू हुई है तो दूर तक तो जाएगी। ....
तब हम लोग नैनीताल (अब उत्तराखंड में ) में थे ,हमारे क्वॉर्टर के पीछे बड़ा सा मटर का खेत था , खेत से कुछ दूरी पर एक सूखी नहर थी (पानी नहीं बहता था नहर में) , नहर में बड़ी- बड़ी उची घास थी और उस घास में ढेर सारी चिड़ियों ने अपने घोसलें बना रखे थे। तब पता नहीं था की "बया चिड़ियाँ" का घोंसला ऐसा होता है , चिड़ियाँ कारीगर ने बड़ी सफाई से तिनका बटोर -बटोर कर साफ़ सुथरा(बीच में कुछ फूला हुआ और नीचे क्रमशः पतला था )घोंसला बनाया था। एक और घोंसला था जो एकदम गोल कटोरे जैसा था ,कहीं से भी एक तिनका बाहर नहीं निकला था। मै और मेरा भाई उसमे से एक दो घोसले घर लाये थे मम्मी को दिखाने के लिए। मम्मी ने हम लोगो को घोसलों के साथ देखा तो सिर पीट लिया हम लोगो को उलटे पैर वापस भेजा "जाओ वापस रख कर आओ नहीं तो बहुत पिटाई करूँगी " ।हमने चिड़ियों का आशियाना वापस कर दिया ,वापस लौटते समय हम लोग मटर के खेत में घुस गए। पेट भर मटर के दाने चबाने के बाद लौटते समय अपने -अपने कपड़ो में जितनी मात्रा आ सकती थी भर लिए , मम्मी ने देखा तो बोली "अब ये कहाँ से उठा लाये ?"
हम लोगो के लीडर हुआ करते थे "तीरथ भैया ", हम लोगो को नयी -नयी जगह घूमाते थे, आर्टिजन पर ले जाते थे (आर्टिजन वो जगह थी जहाँ पीने वाला पानी निकलता था ),एक बार खुसबरी(एक रसीला फल जो पत्तों के कवर में बंद रहता है ) के खेत ले गए , खेत के पास पानी वाली नहर बह रही थी ,हम लोग तो पानी में पैर डाल कर बैठ गए लेकिन तीरथ भैया का जो डॉगी था उसने पानी में जम्प मार लिया हम लोग तो डर गए की अब तो डॉगी डूब जायेगा लेकिन अगले ही पल देखा तो डॉगी आराम से तैर रहा था (पहली बार कुत्ते को तैरते हुए देखा था)।
मुज़्ज़फरनगर की दीपावली भी कुछ कम रोचक नहीं थी , एक हफ्ते पहले से ही पठाखों का कलेक्शन , उनकी टेस्टिंग (कहीं सील तो नहीं गए ) शुरू हो जाती थी। मम्मी घर की सफाई में व्यस्त और हम लोग कूड़ा फ़ैलाने में। घर में गाय भी थी ,तो पटाखा बाहर दगता था और गाय घर में कूदती थी। लाख मना करने पर भी ये सब बचपन में कहाँ समझ में आता है ? बड़े भैया के दिए गए सुझाव से मिटटी की चार पहिया गाड़ी बनायीं थी , ड्राइवर की सीट के सामने शीशा होना चाहिए , अब शीशा कहाँ से आएगा ? हम तीनो भाई -बहन पहुँच गए कूड़े के ढेर पर। लौट कर आये तो पापा ने एक आधा घंटे सजा में खड़ा रखा था।
खेलने में मशगूल हम लोग भूल जाते थे की ऑफिस से लौट कर पापा पहाड़े भी सुनेंगे , सजा मिलने पर एक ही सवाल मन में आता था "हमारे माँ - बाप पढ़े लिखे क्यों है ?"
होली में सबको रंगने के बाद या यूँ कहे की दूसरों द्वारा रंगे जाने पर जब हमें कोई नहीं मिलता था तब हम लोग गईया पर अपने रंगो की वर्षा करते थे। वो सींग दिखाती थी तब हम लोग छिटक कर दूर हट जाते थे और दूर जाने पर पिचकारी की धार गईया तक पहुँच न पाती थी।
बरेली की सर्दियों के तो क्या कहने , क्वार्टर के पास कृषि फार्म था ढेर सारा धुंध रहता था ,क्रिश्चियन कॉलेज होने के नाते सर्दियों की अच्छी -खासी छुट्टियां होती थी। सर्दियों में मूंफली पट्टी का स्वाद याद आते ही मुह में पानी आ गया। कृषि फार्म में आलू उगते देखा था , मिटटी के अंदर छोटे- छोटे गोल -गोल , धान भी पहली बार उगते देखा था.।
ये फोटो बरेली के कृषि फार्म की है