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Monday, July 22, 2013

यादो में बचपन

जून  13 , 2013  
(ये पोस्ट  जून की है जो मै  आज  पेस्ट  कर रही हूँ)

 ललित आया था . बचपन का दोस्त ( बचपन में मै, पिन्टू भैया( मेरा बड़ा भाई) , ललित , ललित की बहन भावना , मीनू , सुधीर सुधीर , असीम , अक्षय ,चिनू , टिम्सी )  सब  साथ  में   खेलते थे .
बचपन का दोस्त इतने  दिनों  के बाद मिले तो कितनी ख़ुशी  मिलती है . शायद इस जज्बात के लिए शब्द नही है मेरे पास .
लालित लखनऊ आया था ,  अपने काम के  सिलसिले  में , घर आने का वादा किया था मगर तमाम अडचने आती जा रही थी ... काफी  मशक्कत  के बाद रात के 9 : 0 0  बजे घर पहुंचा .उसको   देख कर उछल पड़े .
ललित बस   और  ललित .   बातें ही नहीं सूझ  रही थी ... वो भी बहुत खुश था .न उसे बातें सूझ रही थी न ही हमे . एक  के  बाद एक बात  न करके हम लोग इकट्ठे ही बातें कर  रहे थे , वो भी ख़ुशी के मारे कुछ बोल नहीं प! रहा था .  फिर बोला  अभी 10 :3 0  बजे जाना है , मैंने और भैया  एलान कर दिया की तुम अभी नही जाओगे   भले  भाभी ही क्यों   न  आ जायें   . ऐसे मौको  पर घर परिवार वाले कुछ  ज्यादा ही समझदार हो जाते है . खैर  ललित ने वादा  किया की  वो    जब अगली बार आएगा तब ज्यादा दिन रूकेगा .
तब हम लोग मुज़फ्फरनगर (उ . प्र .)  में रहते थे . हम लोग सब एक ही स्कूल में पढ़ते थे . ललित , भैया की क्लास में था . एक  रिक्शा  था हम लोगो को स्कूल   ले  जाने और ले आने के लिये . रिक्शे वाले भैया का  नाम " बहादुर " था . हम लोगो की   बहुत बढ़िया  पटती थी . वो residential  campus  में आ कर आवाज़ लगाता था और हम लोग  बस अपना -अपना  bag , bottle , टिफ़िन बॉक्स  सँभालते हुए रिक्शे की ओर दौड़ लगाते थे . एक रूल  था जो सीनियर  होता था वो गद्दी वाली सीट पर बैठता था बाकी बच्चे लकड़ी वाली सीट पर ( लकड़ी की सीट गद्दी वाली सीट के सामने लगी रहती है ) .   यहाँ पर थोड़ी  सी  अपनी तारीफ़ कर दूं , उस रिक्शे पर दो ही लडकियां हुआ करती थी एक मै  और दूसरी भावना ,मै  भावना से  सीनियर थी सो मै  गद्दी पर बैठती थी . बीच  में अगर  कोई  दूसरा  रिक्शा हमारे  रिक्शे से आगे निकल जाता था तब हम लोग बहादुर को चीयर करते थे  और आगे निकल कर  खूब तालियाँ  बजाते थे .
बारिश के मौसम में तो बहादुर का रिक्शा हम लोगो के लिए सर दर्द बन जाता था . जब बारिश  थी तब बहादुर   हम लोगो को एक   सी नीली  पालीथिन से ढक देता था , उसमें  इतनी गर्मी लगती थी हम लोग नेवले की तरह मुह बाहर निकालते थे और बहादुर के डाटने पर झट से मुह अंदर . ललित हम लोगो से कही ज्यादा एक्टिव  था वो पॉलीथीन को घूँघट की तरह बना लेता था और टुकुर -टुकुर देखा  करता था .
शाम  का टाइम पक्का होता था खेलने के लिए  वह पचासा  हुआ नहीं की हम कैद के पंछी घर के बाहर फिर वाही बचपन के अनगिनित खेल खो-खो , पोसम पा , चेन  -चेन ,चोर सिपाही . अरे एक खेल तो छूट ही गया  चील -चील  पहाड़िया( ललित का ही सुझाया  हुआ खेल था ... अनीता दीदी से पिटा  भी था , है न ललित ... ह  ह  ह )
अरे अप्पू तुम्हारा जिक्र तो छूटा  ही जा रहा है , उस रिक्शे पर तुम मेहमान सरीखे थे , अपनी मम्मी का लाडला बेटा ( आंटी अप्पू को आंटे  से A , B , C , D ... बना कर खिलाती थी . मुझे ड्यूटी दी गयी थी की lunch  break  में अप्पू को मई टिफ़िन करवाऊं क्यों  की तब अप्पू बहुत छोटा था .आंटी का आम का आचार मुझे बहुत टेस्टी लगता था , अब अप्पू अजय सिंह बन गये है औरकहता   है की दीदी मेरा टिफ़िन  चाट कर जाती थी ... बदमाश कही का ...
ये बचपन हुआकरता था  हँसता  खेलता ...
ये  बातें हम लोगो के साथ -साथ  ललित को याद  भी  थी , लेकिन  वक़्त की किल्लत ने हम लोगो की यादों  पर विराम लगा दिया , लेकिन फिर मिलने के वादे  ने  एक  औरमौका  दिया है यादो को याद करने का .
 

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