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Saturday, November 15, 2014

यादों की चरखी...

बदलती  तारीख  के  साथ  14 नवंबर भी बदल गया ,लेकिन मेरे बचपन की यादों की चरखी तो खुलती ही जा रही है. जब भी बचपन  की बात चलती है , कही 'बचपन'  शब्द सुनाई पड़ता है तो दिल दिमाग में बाँसुरी का स्वर गूँज उठता है ,दिमाग के सात सुरों को कम्पन मिल जाता है।  हँसता खेलता ,कूदता ,इठलाता ,मौज मस्ती का बचपन , बचपन  जैसे फुल मस्ती का डोज़ … 


तब हम लोग नैनीताल (अब उत्तराखंड में ) में थे ,हमारे क्वॉर्टर के पीछे बड़ा सा मटर  का खेत था , खेत से कुछ दूरी पर एक सूखी नहर थी (पानी नहीं बहता  था नहर में) , नहर में बड़ी- बड़ी उची घास थी और उस घास में ढेर सारी  चिड़ियों ने अपने घोसलें बना रखे थे। तब पता नहीं था की "बया चिड़ियाँ" का घोंसला ऐसा होता है , चिड़ियाँ कारीगर  ने बड़ी सफाई से तिनका बटोर -बटोर कर साफ़ सुथरा(बीच में कुछ फूला हुआ और नीचे क्रमशः पतला था )घोंसला बनाया था। एक और घोंसला था जो एकदम गोल कटोरे जैसा था ,कहीं से भी एक तिनका बाहर नहीं निकला था। मै  और मेरा भाई उसमे से एक दो घोसले घर लाये  थे मम्मी को दिखाने  के लिए। मम्मी ने हम लोगो को घोसलों के साथ देखा तो सिर पीट  लिया हम लोगो को उलटे पैर वापस भेजा "जाओ वापस रख कर आओ नहीं तो बहुत पिटाई करूँगी " ।हमने  चिड़ियों का आशियाना वापस कर दिया ,वापस लौटते समय हम लोग मटर के खेत में घुस गए। पेट भर मटर के दाने चबाने के बाद लौटते समय अपने -अपने कपड़ो में जितनी मात्रा  आ सकती थी भर लिए , मम्मी ने देखा तो बोली "अब ये कहाँ से उठा लाये ?"
 हम लोगो के लीडर हुआ करते थे "तीरथ भैया ", हम  लोगो को नयी -नयी जगह घूमाते  थे, आर्टिजन पर  ले जाते थे (आर्टिजन वो जगह थी जहाँ पीने वाला पानी निकलता था ),एक बार  खुसबरी(एक रसीला फल जो पत्तों के कवर में बंद रहता है ) के खेत  ले गए , खेत के पास पानी वाली नहर  बह रही थी ,हम  लोग तो पानी में पैर डाल कर बैठ गए लेकिन तीरथ भैया का जो डॉगी  था उसने पानी में जम्प मार लिया हम लोग तो  डर गए की अब तो डॉगी  डूब जायेगा लेकिन अगले ही पल देखा तो डॉगी आराम से तैर रहा था (पहली बार कुत्ते को तैरते हुए देखा था)।


मुज़्ज़फरनगर की दीपावली भी कुछ कम रोचक नहीं थी , एक हफ्ते पहले से ही पठाखों का कलेक्शन , उनकी टेस्टिंग (कहीं  सील  तो नहीं गए ) शुरू हो जाती थी।  मम्मी घर की सफाई में व्यस्त और हम लोग कूड़ा फ़ैलाने में। घर में गाय भी थी ,तो पटाखा बाहर दगता था और गाय घर में कूदती थी।  लाख मना करने पर भी ये सब बचपन में कहाँ समझ में आता है ? बड़े भैया  के दिए गए सुझाव से मिटटी की चार पहिया गाड़ी बनायीं थी , ड्राइवर की सीट के सामने शीशा होना चाहिए , अब शीशा कहाँ से आएगा ? हम तीनो भाई -बहन पहुँच गए कूड़े के ढेर पर। लौट कर आये तो पापा ने एक आधा  घंटे सजा में खड़ा रखा था।
खेलने में मशगूल हम लोग भूल जाते थे की ऑफिस से लौट कर पापा पहाड़े भी सुनेंगे ,  सजा मिलने पर एक ही सवाल मन में आता था "हमारे माँ - बाप पढ़े लिखे क्यों है ?"
होली में सबको रंगने के बाद या यूँ कहे की दूसरों द्वारा रंगे  जाने पर जब हमें कोई नहीं मिलता था तब हम लोग गईया पर अपने रंगो की वर्षा करते थे। वो सींग दिखाती  थी तब हम लोग छिटक कर दूर हट  जाते थे और दूर जाने पर पिचकारी की धार गईया तक पहुँच न पाती थी।


बरेली की सर्दियों के तो क्या कहने , क्वार्टर के पास कृषि फार्म था ढेर सारा धुंध रहता था ,क्रिश्चियन कॉलेज होने के नाते सर्दियों की अच्छी -खासी छुट्टियां होती थी। सर्दियों में मूंफली पट्टी  का स्वाद याद  आते ही मुह में पानी आ गया। कृषि फार्म में आलू उगते देखा था , मिटटी के अंदर छोटे- छोटे गोल -गोल , धान भी पहली बार उगते देखा था.।



                                                             ये फोटो बरेली के कृषि फार्म की है

हरदोई ने   हमे  बड़ा कर दिया , लखनऊ आते - आते बचपन काफी पीछे छूट गया। लेकिन बचपन की यादों(शरारतों ,चंचलता,दौड़ना -भागना ) की चरखी  शुरू हुई है तो दूर तक तो जाएगी। ....

Monday, July 22, 2013

यादो में बचपन

जून  13 , 2013  
(ये पोस्ट  जून की है जो मै  आज  पेस्ट  कर रही हूँ)

 ललित आया था . बचपन का दोस्त ( बचपन में मै, पिन्टू भैया( मेरा बड़ा भाई) , ललित , ललित की बहन भावना , मीनू , सुधीर सुधीर , असीम , अक्षय ,चिनू , टिम्सी )  सब  साथ  में   खेलते थे .
बचपन का दोस्त इतने  दिनों  के बाद मिले तो कितनी ख़ुशी  मिलती है . शायद इस जज्बात के लिए शब्द नही है मेरे पास .
लालित लखनऊ आया था ,  अपने काम के  सिलसिले  में , घर आने का वादा किया था मगर तमाम अडचने आती जा रही थी ... काफी  मशक्कत  के बाद रात के 9 : 0 0  बजे घर पहुंचा .उसको   देख कर उछल पड़े .
ललित बस   और  ललित .   बातें ही नहीं सूझ  रही थी ... वो भी बहुत खुश था .न उसे बातें सूझ रही थी न ही हमे . एक  के  बाद एक बात  न करके हम लोग इकट्ठे ही बातें कर  रहे थे , वो भी ख़ुशी के मारे कुछ बोल नहीं प! रहा था .  फिर बोला  अभी 10 :3 0  बजे जाना है , मैंने और भैया  एलान कर दिया की तुम अभी नही जाओगे   भले  भाभी ही क्यों   न  आ जायें   . ऐसे मौको  पर घर परिवार वाले कुछ  ज्यादा ही समझदार हो जाते है . खैर  ललित ने वादा  किया की  वो    जब अगली बार आएगा तब ज्यादा दिन रूकेगा .
तब हम लोग मुज़फ्फरनगर (उ . प्र .)  में रहते थे . हम लोग सब एक ही स्कूल में पढ़ते थे . ललित , भैया की क्लास में था . एक  रिक्शा  था हम लोगो को स्कूल   ले  जाने और ले आने के लिये . रिक्शे वाले भैया का  नाम " बहादुर " था . हम लोगो की   बहुत बढ़िया  पटती थी . वो residential  campus  में आ कर आवाज़ लगाता था और हम लोग  बस अपना -अपना  bag , bottle , टिफ़िन बॉक्स  सँभालते हुए रिक्शे की ओर दौड़ लगाते थे . एक रूल  था जो सीनियर  होता था वो गद्दी वाली सीट पर बैठता था बाकी बच्चे लकड़ी वाली सीट पर ( लकड़ी की सीट गद्दी वाली सीट के सामने लगी रहती है ) .   यहाँ पर थोड़ी  सी  अपनी तारीफ़ कर दूं , उस रिक्शे पर दो ही लडकियां हुआ करती थी एक मै  और दूसरी भावना ,मै  भावना से  सीनियर थी सो मै  गद्दी पर बैठती थी . बीच  में अगर  कोई  दूसरा  रिक्शा हमारे  रिक्शे से आगे निकल जाता था तब हम लोग बहादुर को चीयर करते थे  और आगे निकल कर  खूब तालियाँ  बजाते थे .
बारिश के मौसम में तो बहादुर का रिक्शा हम लोगो के लिए सर दर्द बन जाता था . जब बारिश  थी तब बहादुर   हम लोगो को एक   सी नीली  पालीथिन से ढक देता था , उसमें  इतनी गर्मी लगती थी हम लोग नेवले की तरह मुह बाहर निकालते थे और बहादुर के डाटने पर झट से मुह अंदर . ललित हम लोगो से कही ज्यादा एक्टिव  था वो पॉलीथीन को घूँघट की तरह बना लेता था और टुकुर -टुकुर देखा  करता था .
शाम  का टाइम पक्का होता था खेलने के लिए  वह पचासा  हुआ नहीं की हम कैद के पंछी घर के बाहर फिर वाही बचपन के अनगिनित खेल खो-खो , पोसम पा , चेन  -चेन ,चोर सिपाही . अरे एक खेल तो छूट ही गया  चील -चील  पहाड़िया( ललित का ही सुझाया  हुआ खेल था ... अनीता दीदी से पिटा  भी था , है न ललित ... ह  ह  ह )
अरे अप्पू तुम्हारा जिक्र तो छूटा  ही जा रहा है , उस रिक्शे पर तुम मेहमान सरीखे थे , अपनी मम्मी का लाडला बेटा ( आंटी अप्पू को आंटे  से A , B , C , D ... बना कर खिलाती थी . मुझे ड्यूटी दी गयी थी की lunch  break  में अप्पू को मई टिफ़िन करवाऊं क्यों  की तब अप्पू बहुत छोटा था .आंटी का आम का आचार मुझे बहुत टेस्टी लगता था , अब अप्पू अजय सिंह बन गये है औरकहता   है की दीदी मेरा टिफ़िन  चाट कर जाती थी ... बदमाश कही का ...
ये बचपन हुआकरता था  हँसता  खेलता ...
ये  बातें हम लोगो के साथ -साथ  ललित को याद  भी  थी , लेकिन  वक़्त की किल्लत ने हम लोगो की यादों  पर विराम लगा दिया , लेकिन फिर मिलने के वादे  ने  एक  औरमौका  दिया है यादो को याद करने का .
 

Wednesday, February 8, 2012

Subh Prabhat

शुभ प्रातः दोस्तों 
उत्तर प्रदेश का चुनावी समर आज से शुरू है और मौसम ने भी अपना रंग दिखाना  शुरू कर दिया है
देर रात से ही बारिश शुरू हो चुकी है !
लेकिन मतदाता अपने मत का प्रयोग अवश्य करेंगे !
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बारिश कोई पहली बार तो हो नहीं रही है ......अबकी बार चूकने का मतलब ......5 साल फिर ऊफ ही करेंगे 
इसलिए  सबको  प्रमोट  करिए , खुद भी वोट  कीजिये  औरो  को  भी ले  जाइये !
शायद अबकी  बार उत्तर प्रदेश रिकॉर्ड कायम करेगा ऐसी आशा है हम सभी की .
सुभकाम्नायों  के  साथ .............उत्तर प्रदेश वासी
 

Monday, February 6, 2012

Naya savera

आज सुबह का जब अख़बार हाथ में लिया तब याद आया की उत्तर प्रदेश में चुनाव के तो बस दो दिन ही बाकी रह गया है लोगो में वाही असमंजस  की इस्थिति है किसे वोते करे किसे न करे सभी एक थाली के बैगन है.
सारिया बाटी जा रही है.शराब , पैसा सब बता जा रहा है

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क्या भविष्य है उत्तर प्रदेश का ,,,,,क्या घाघरा की इस्थ्ती सुधरेगी ,,,,,या पञ्च साल फिर पछतावे में ही बीतेंगे ???
उत्तर प्रदेश के शहरों की इस्थिति तो काफी हद तक ठीक है ...गाँव की इस्थाती देख कर तो रूह काप जाती है .

Sunday, February 5, 2012

khushi

काफी दिनों से एक ऐसा  प्लेटफॉर्म चाहिए था जो विचारो को व्यक्त  कर सके और आख़िरकार मिल ही गया।

My First Blog

मै आज फर्स्ट टाइम ब्लॉग लिख रही हूँ, आज मै बहुत खुश हूँ और  इसका  सारा क्रेडिट मेरे भाई को जाता है.